संपादकीय

पूर्वोत्तर भारत और हिंदी
खंड–2, अंक–6, जनवरी–मार्च, 2022, पृष्ठ संख्या – 86
पूर्वोत्तर और हिंदी के प्रेम की कहानी पुरानी है। पन्द्रहवीं शताब्दी में असमिया के एक बहुत प्रसिद्ध कवि हुए श्रीमंत शंकरदेव। श्रीमंत शंकरदेव असम सहित संपूर्ण प्राग्ज्योतिषपुर के समाज, साहित्य और जीवन-बोध के केंद्र में हैं। जब भक्तिकाल चल रहा था तब पूर्वोत्तर के साहित्य में शंकरदेव सक्रिय थे। शंकरदेव की रचनात्मकता ब्रजभाषा के राष्ट्रीय स्वरूप का प्रमाण हैं। असम में नव वैष्णव आंदोलन ब्रजबुलिरु/ब्रजावली में संभव होता है। ब्रजबुलिध्वजावली ब्रजभाषा, असमिया, मैथिली, संस्कृत और बांग्ला का सम्मिलित रूप है। शंकरदेव ने अपने जीवन में दो बार भारत का भ्रमण किया था। वे अपने साहित्य में कहीं भी असम शब्द का प्रयोग नहीं करते। भारतवर्ष उनकी रचनाधर्मिता के केंद्र में है। यही वह बिंदु है जहाँ से मैं पूर्वोत्तर और हिंदी के संबंध को समझता हूँ। नवंबर 2017 की बात है। तेजपुर विश्वविद्यालय के अतिथि गृह के एक कमरे में मैं दयाल कृष्ण बोरा से बात कर रहा था। दयाल कृष्ण बोरा असमिया, हिंदी और ब्रजबुलि के विद्वान रहे। अब वे नश्वर शरीर में नहीं हैं। वे एकनाथ भगवती समाज से थे। असम के बरपेटा सत्र से संबंधित थे। सत्र बोले तो मठ। बरपेटा सत्र श्रीमंत शंकरदेव का कर्मस्थल रहा है। खैर, दयाल दा ने एक बात कही 'चौबे जी, ज्योति अगरवाला के खिलाफ अगर आप कुछ बोलेंगे ना तो असम में आग लग जाएगी। ज्योति अगरवाला की बहुत प्रतिष्ठा है यहाँ'। आपको पता है, कौन है ज्योति प्रसाद अगरवाला? ये सज्जन एक मारवाड़ी व्यापारी थे। असमिया साहित्य में हिंदी के छायावादी युग के समानांतर रचना समय के नायक हैं ज्योति प्रसाद अगरवाला। इनका जन्मदिन असम में 'शिल्पी दिवस' के रूप में मनाया जाता है और पूरे असम में सार्वजनिक अवकाश रहता है। मैं यह सूचना आपको यह बतलाने के लिए दे रहा हूँ कि पूर्वोत्तर का समाज, संस्कृति, साहित्य और कला की सेवा करने वाले एक मारवाड़ी व्यक्ति को नायक बनाने में सहर्ष तैयार रहा। ज्योति अगरवाला हिंदी सेवी भी थे। यह आजादी के पहले की बात है। तब असम आज का असम नहीं बल्कि पूर्वोत्तर का अधिकांश क्षेत्र असम में ही आता था। सांस्कृतिक रूप से सात राज्यों का, सिक्किम को मिला दें तो आठ राज्यों का यह भू-भाग भौगोलिक रूप से कमोबेश एक जैसा है। आज जिसे हम पूर्वोत्तर भारत कहते हैं, वह स्वयं में अनेकानेक भाषाओं-बोलियों, जनजातियों, नृत्य-संगीत, कलाओं, वनस्पतियों, वन्यजीवों, पारिस्थितिक विविधताओं और लोक संस्कृतियों को समेटे हुए है। सिक्किम से लेकर अरुणाचल तक और नागालैंड से लेकर त्रिपुरा तक. भारत के इन आठ राज्यों में लगभग दो सौ से अधिक जनजातियाँ निवास करती हैं। इनका हिंदी से परिचय भावात्मक कम, तार्किक ज्यादा है। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ कि उत्तरी भारत, पश्चिमी भारत या दक्षिणी भारत में हिंदी से प्यार और घृणा के संबंध भावुकता केंद्रित अधिक हैं। 'मेरी मातृभाषा है, मेरी मातृभाषा नहीं है' वाला तर्क। पूर्वोत्तर में हिंदी को लेकर यह तर्क नहीं है। असमिया-बोडो से, बोडो -कार्यों से, कार्थी-मिसिंग से, मिसिंग न्यीशी से, मोनपा- सोनोवाल से, किस भाषा में संवाद करें? आपको यहाँ बैठे लगता होगा कि पूर्वोत्तर के सातों-आठों राज्यों का मामला एक जैसा है जबकि आप वहाँ जाए तो पता चलता है कि वहाँ विपुल मात्रा में भाषाई एवं सांस्कृतिक विविधता है। लुसाई हिल्स जो अब मिजोरम कहलाता है, में हिंदी 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ब्रिटिश सेना के गोरखाली लोगों से पहुँची। आज वहाँ तीस प्रतिशत से अधिक लोग हिंदी बोलने, लिखने और समझने में रुचि रखते हैं। स्कूली स्तर पर छः सौ से अधिक प्राथमिक अध्यापक, आठ सौ पचास से अधिक माध्यमिक विद्यालय के अध्यापक और पाँच सौ से अधिक उच्च माध्यमिक विद्यालय के अध्यापक हिंदी में हैं। एक सौ पचास से अधिक हिंदी सेवी संस्थाएं हैं। मिजोरम विश्वविद्यालय में हिंदी का संपन्न विभाग है। मुझे एक प्रसंग...